यहीं लाक्षागृह का निर्माण किया था: उत्तराखंड में भोलेनाथ का अद्भुत मंदिर, जानिए क्या है विशेषता
मंदिर की विशिष्टता यह है कि इसके अंदर एक चट्टान पर पैरों के निशान मौजूद हैं, जिन्हें देवी पार्वती के पैरों के निशान माना जाता है। मंदिर के अंदर भगवान कार्तिकेय, भगवान गणेश, भगवान विष्णु और हनुमान जी की मूर्तियां भी स्थापित हैं।
देहरादून | उत्तराखंड का आदिकालीन सभ्यताओं से गहरा नाता रहा है। यहां ऐसे अनेक स्थान मौजूद हैं, जहां एतिहासिक एवं पौराणिक काल के अवशेष बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में एक स्थल है देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव। माना जाता है कि द्वापर युग में दुर्योधन ने पांचों पांडवों और उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहीं लाक्षागृह का निर्माण किया था। एएसआइ को खुदाई के दौरान यहां मिले सैकड़ों शिवलिंग व दुर्लभ मूर्तियां इसकी तस्दीक करती हैं।
यमुना नदी के उत्तरी छोर पर स्थित देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव एतिहासिक ही नहीं पौराणिक ²ष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। समुद्रतल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लाखामंडल गांव देहरादून से 128 किमी, चकराता से 60 किमी और पहाड़ों की रानी मसूरी से 75 किमी की दूरी पर है। लाखामंडल की प्राचीनता को कौरव-पांडवों से जोड़कर देखा जाता है।
बताते हैं कि लाखामंडल में वह एतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिससे होकर पांडव सकुशल बाहर निकल आए थे। इसके बाद पांडवों ने चक्रनगरी में एक माह बिताया, जिसे आज चकराता कहते हैं। लाखामंडल के अलावा हनोल, थैना व मैंद्रथ में खुदाई के दौरान मिले पौराणिक शिवलिंग व मूर्तियां गवाह हैं कि इस क्षेत्र में पांडवों का वास रहा है।
कहते हैं कि पांडवों के अज्ञातवास काल में युधिष्ठिर ने लाखामंडल स्थित लाक्षेश्वर मंदिर के प्रांगण में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वह आज भी विद्यमान है। इसी लिंग के सामने दो द्वारपालों की मूर्तियां हैं, जो पश्चिम की ओर मुंह करके खड़े हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। शिव को समर्पित लाक्षेश्वर मंदिर 12-13वीं सदी में निर्मित नागर शैली का मंदिर है।
यहां प्राप्त अभिलेखों में छगलेश एवं राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति (पांचवीं छठी सदी) का उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि इस स्थान के पुरावशेष वर्तमान मंदिर से पूर्वकाल के हैं और मंदिर की प्राचीनता पांचवीं छठी सदी तक जाती है। राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति से भी यहां एक शिव मंदिर के निर्माण की पुष्टि होती है। मंदिर परिसर में स्थित दर्जनों पौराणिक लघु शिवालय, एतिहासिक और प्राचीन मूर्तियां पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। मंदिर में एक विशाल बरामदा है, जिसके मध्य में एक बड़ा शिवलिंग मंच पर विराजमान है।
ऐसे ही तमाम रहस्यों को देखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) ने लाखामंडल और हनोल को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर यहां स्थित प्राचीन मंदिरों के संरक्षण की जिम्मेदारी ली है। एएसआई को 2006 में मंदिर क्षेत्र के पास क्षतिग्रस्त दीवार की खुदाई के दौरान भगवान विष्णु की एक मूर्ति और तीन शिवलिंग मिले थे, जो विभाग के संग्रहालय में संरक्षित हैं।
लाखामंडल में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि यहां बहुत सारे मंदिर रहे होंगे। लाक्षेश्वर परिसर से मिले छठी सदी के एक शिलालेख में उल्लेख है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने दिवंगत पति चंद्रगुप्त, जो जालंधर नरेश का पुत्र था, की सद्गति के लिए लाक्षेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। लाक्षेश्वर शब्द का अपभ्रंश कालांतर में लाखेश्वर हो गया। लाखेश्वर से ही लाखा शब्द लिया गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार उस समय जो प्रांत अथवा जिले कर की अदायगी करते थे, उन्हें मंडल कहा जाता था। इसलिए लाखा के साथ मंडलन शब्द जुड़कर यह लाखामंडल हो गया।
क्षेत्र का नाम लाखामंडल पडने की एक वजह यह भी हो सकती है कि यहां शिव की लाखों मूर्तियां मिलती हैं। दो फीट की खुदाई करने पर ही यहां हजारों साल पुरानी दुर्लभ मूर्तियां निकल आती हैं। लाख यानी बहुत सारे और मंडल का मतलब ऐसी जगह, जहां बहुत सारे मंदिरों का एक विशेष लिंग के साथ वास स्थल हो। संभवत: इसीलिए कालांतर में इसे लाखामंडल कहा जाने लगा।
लाखामंडल से प्राप्त उमा-महेश्वर का मूर्ति पैनल, गणेश, कार्तिकेय और शिवगणों की मूर्तियां कला का अनुपम उदाहरण हैं। यहां की शिव तांडव मूर्तियां देश के इस उत्तरी भाग को दक्षिण से जोड़ती हैं। प्रतीत होता है कि मध्यकाल की कला परंपरा पूरे देश में विकसित हो चुकी थी। तांडव की नृत्य मुद्रा में शिव एवं तपस्यारत पार्वती, गणेश और कार्तिकेय लाखामंडल की मूर्तिकला में अभिव्यक्ति पा रहे हैं।
मंदिर की विशिष्टता यह है कि इसके अंदर एक चट्टान पर पैरों के निशान मौजूद हैं, जिन्हें देवी पार्वती के पैरों के निशान माना जाता है। मंदिर के अंदर भगवान कार्तिकेय, भगवान गणेश, भगवान विष्णु और हनुमान जी की मूर्तियां भी स्थापित हैं।
लाखामंडल के पुरावशेषों को सबसे पहले वर्ष 1814-15 में जेम्स बेली फ्रेजर ने प्रकाश में लाया था। अपनी पुस्तक द हिमालया माउंटेंस में उन्होंने इस स्थल पर शिव मंदिर के अलावा पांच पांडवों के मंदिर, महर्षि व्यास व परशुराम का मंदिर, प्राचीन केदार मंदिर और कुछ मूर्तियों का उल्लेख किया है। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है कि लाखामंडल प्राचीन काल में आबाद रहा है। ग्राम लावड़ी से प्राप्त महापाषाण संस्कृति के अवशेष इस अवधारणा को पुष्ट करते हैं। इस संस्कृति के अवशेष तत्कालीन मृतक संस्कारों पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं। इस पद्धति में पत्थरों से निर्मित ताबूत में मृत शरीर अथवा अवशेषों को रखा जाता था।
लाक्षेश्वर मंदिर आकर्षक वास्तुकला और गंवई एवं पुराने जमाने के वातावरण का मिश्रण है। मंदिर वास्तु के साथ-साथ मूर्ति शिल्प में भी लाखामंडल विशिष्ट स्थान रखता है। पत्थर पर लगभग सातवीं सदी में उत्कीर्ण जय-विजय की आदमकद प्रतिमा इस क्षेत्र के मूर्तिशिल्प का उदाहरण है। इसके अलावा शिव-पार्वती, गंगा-यमुना और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां भी लाखामंडल के मूर्तिशिल्प की विशिष्टता को परिलक्षित करती हैं।
लाक्षेश्वर मंदिर परिसर में स्थित शिवलिंग ग्रेफाइट का बना हुआ है और जल अर्पित करने पर चमकने लगता है। इस दौरान इसमें व्यक्ति की छवि साफ नजर आती है। मान्यता है कि सृष्टि के निर्माण काल से ही यह शिवलिंग लाखामंडल में स्थापित है।
लाखामंडल की एक खासियत यह भी है कि यहां प्राप्त शिवलिंग अलग-अलग रंग के हैं। यह बेशक हजारों साल पुराने हैं, लेकिन देखने से और जमीन के नीचे होने से इनको कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा।
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