लोकेन्द्रसिंह किलाणौत की कलम से : मोरचंग से मन चंगा

लोकेन्द्रसिंह किलाणौत का यह आलेख अहा! जिंदगी मैग्जीन में प्रकाशित हुआ है। लोकेन्द्र राजस्थान से जुड़े पहलुओं पर खास पकड़ रखते हैं और अलहदा अंदाज में उसे प्रस्तुत करते हैं।

मोरचंग से मन चंगा
प्रसिद्ध वाद्य यंत्र मोरचंग

मारवाड़ को विधाता से दुर्भाग्य ही मिला है। बसने को बंजर जमीन,पीने को चौमासे का पानी,संपत्ति के नाम पर रेगिस्तान में उगने वाले रोहिडा, खेजड़ी और अकाल जैसा शुभचिंतक जो हर त्यौहार आंगन आ जाता है। एक दिन कभी कोई ग्वाला सुबह थैले में कलेवा बांधकर गाये चराने निकला होगा और सुस्ताने के लिए खेजड़ी की छांव में बैठकर बांसुरी बजाने को मन मचल गया होगा।

बिना साज ही धोरों की तेज चलने वाली हवाओ से जुगलबंदी की कोशिश में उसने मारवाड़ की बांसुरी मोरचंग को गढ़ दिया या फिर श्री कृष्ण द्वारिकाधीश बनने के बाद ग्वाले नही रहे। यमुना की गायों से कृष्ण के साथ-साथ बांसुरी का मधुर स्वर भी दूर हो गया।

राजा बनने के बाद कृष्ण यमुना तट पर बांसुरी छोड़ कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध का शंख बजाने लगे थे। तब गायों की मनोदशा देख यमुना की लहरों से दूर रेत की लहरों में किसी ग्वाले ने करूणा में भीगकर गायों को बांसुरी जैसे ही किसी संगीत के मीठे घूंट पिलाने के लिए मोरचंग का आविष्कार कर दिया होगा और श्री कृष्ण की स्तुति में लिखा गया...

बजे मुरचंग,
मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग,
अतुल रति गोप कुमारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥

बांसुरी को सुनारों ने मोतियों से सजाकर गढ़ा तो बिहारी,सूर,रसखान और मीरा का काव्य निछावर हो गया लेकिन मोरचंग को आग में तपाकर मजबूत हथोड़े की चोट से गढ़ा राजस्थान के लुहारों ने जिसे किसी भी दौर का कोई कवि अपने पद्य में नही उतार पाया।

मारवाड़ की तपती दुपहरी में राहगीर को पानी मिलने से भी ज्यादा कठिन है, मोरचंग का सटीक इतिहास मिलना क्योकि मोरचंग आभावो में जीवन जीने वाले यायावरों,ग्वालों और घुमंतू लुहारों के होठों पर सजता रहा। ना तो मोरचंग किसी राजा की रंगीन संगीत की शामों तक दस्तक दे पाया और ना ही राजदरबार के किसी दरबारी ने अपने आश्रयदाता के सामने मोरचंग के साथ विरुदावली गायन किया। खैर, विरुदावली गायन के लिए गाल बजाने होते है और मोरचंग की मिठास तब बाहर आ पाती है जब कोई उस्ताद इसे होठों का चुम्बन देकर अपनी सांसों से आलिंगन करवाये।

राजदरबारों से ठुकरा दिए जाने के बाद मोरचंग ने बॉलीवुड में दस्तक दी और 1971 में आई फ़िल्म रेशमा और शेरा में सुनील दत्त ने वहीदा रहमान के लिए मोरचंग बजाकर दर्शको को असमंजस में डाल दिया कि इतना मीठा संगीत किस वाद्य यंत्र का है। मोरचंग को लेकर बनी अचानक जिज्ञासा ने भी एक बड़ा नुकसान कर दिया और संगीत को समझने वाले लोगो ने इसे सुषिर वाद्य यंत्र घोषित कर दिया क्योकि अब तक भी लोगो मे यह भ्रांति बनी हुई है कि मोरचंग को फूंक मारकर बजाया जाता है जबकि इसे बजाने के लिए फूंक नही बल्कि सांसों का संतुलन होना जरूरी है।

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इसके बाद बॉलीवुड को मोरचंग इतना भा गया कि बहुत से फ़िल्म निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के संगीत में इसे काम मे लिया। समय के साथ-साथ संगीत में नवाचार हुए तो हर दौर के संगीत के साथ मोरचंग ने कदमताल करी। आज के दौर के मशहूर म्यूजिक कंपोजर एआर रहमान अपने गाने "जिया जले" में मोरचंग के साथ म्यूजिक को कम्पोज कर यह साबित कर देते है कि सदियों पुराना मोरचंग रैप और हिपहॉप म्यूजिक के दौर में भी उपयोगी और जरूरी है। फेमस अमरीकन कार्टून "Tom And Jerry"" में भी तरह तरह की आवाज निकालने के लिए मोरचंग का उपयोग किया गया है।

आज मोरचंग दुनिया के लगभग हर देश मे अलग-अलग नामो से मौजूद है। नीदरलैंड के एक संगीतज्ञ फोन्स बैक्स ने यहूदी वीणा के लिए एक हजार से ज्यादा नामो का उल्लेख किया है और दक्षिण एशिया में ज्यूज हार्प के लिए जो नाम दिया है वह मोरचंग है। अनेक देश दुसरे नामो से मोरचंग पर अपना-अपना दावा करते है लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि इस वाद्य यंत्र के उद्भव और विकास की जड़े पश्चिम राजस्थान में है। लेकिन दस्तावेजों के आभाव में बिना किसी ठोस दावे के यह कहना भी काफी रहेगा कि मोरचंग सदियों से पश्चिमी राजस्थान की लोक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है।

राजस्थान की हर संगीतजीवी जातियां जिनमे लंगा,मांगणियार,भोपे,बंजारा का संगीत आज मोरचंग के बिना अधूरा है। मोरचंग को राजस्थान के लोक में ठीक से समझने के लिए राजस्थानी भाषा के विख्यात साहित्यकार आईदान सिंह भाटी का यह दोहा गौर करने लायक है...

मुख में लेयर मोरचंग, धवलै धोरै ढाल।
माडधरा रौ मानखौ, गुण गावै गोपाल।

लोक संगीत में इतना गहरा पैठ करने के बाद भी मोरचंग के उद्भव और विकास पर सटीक जानकारी का आभाव इस बात पर पुख्ता मुहर है कि इसकी जड़ें बहुत पुरानी है। आज भी पश्चिमी राजस्थान में अनेक संगीतजीवी जातिया इसे पेशेवर तौर पर बजाती है। इन्ही जातियों से एक से बढ़कर एक उस्ताद हर दौर में हुए जिनमे तागाराम भील ने इसे सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय मंचो पर बजाया लेकिन मोरचंग के सवाल पर इसे बजाने वाले कलाकार भी बस इतना ही कहते है कि हमारे पुरखे इसे सदियों से बजाते आ रहे है।

राजस्थानी संस्कृति के जानकार गजेन्द्र कविया मोरचंग पर अलग राय रखते हैं। उनके अनुसार मोरचंग की ध्वनि मनुष्य से अधिक पशुओं को प्रिय है। कविया बताते हैं कि बांसुरी पर गाये मोहित हुई,पूंगी पर सर्प निछावर हुए तो सारंगी की आवाज सुनकर हिरण सुधबुध खो बैठते है। इसी तरह कालांतर में पश्चिमी राजस्थान के लुहारों ने मरुस्थल के भौगोलिक परिवेश में गुर्जरों का मुनाफे वाला भेड़ पालन का व्यवसाय शुरू किया।

लुहारों के हथौड़ों की आवाज सुनकर मासूम भेड़ें भाग जाती थी तो लुहारों को समझ आया कि हथोड़े की कर्कश आवाज के बजाय कोई मधुर संगीत भेड़ो में एकाग्रता ला सकता है और उसके बाद मोरचंग का आविष्कार हुआ। लुहारों और ग्वालों के बाद मोरपंख के आकार का यह छोटा सा वाद्य यंत्र जब उस्तादों के पास पहुंचा तो इसने इसने लोक संगीत में अनेक रंग बिखेर दिए।

मोरचंग बजाने वाले बाड़मेर के उस्ताद हाकम खान मांगणियार बताते हैं कि वे लंबे समय से मोरचंग बजा रहे है और लोहे के बजाय उन्हें पीतल से बना मोरचंग अधिक आसान लगता है क्योंकि लोहे के बजाय पीतल से बने मोरचंग की ध्वनि ज्यादा मिठास भरी होती है।

हाकम खान कहते हैं कि वैसे तो मांगणियार कलाकार सब तरह के वाद्य यंत्र बजा लेते है लेकिन मोरचंग चलते फिरते मांगणियार के पास मिल जाता है क्योंकि यह यंत्र जेब मे आ जाता है और हर जगह आसानी से ले जाया जा सकता है।

लोकेन्द्रसिंह किलाणौत

लोकेन्द्रसिंह किलाणौत

Source Credit : https://www. facebook.com/ lokendra.lokendrasingh.92

लोकेन्द्रसिंह किलाणौत का यह आलेख अहा! जिंदगी मैग्जीन में प्रकाशित हुआ है। लोकेन्द्र राजस्थान से जुड़े पहलुओं पर खास पकड़ रखते हैं और अलहदा अंदाज में उसे प्रस्तुत करते हैं।

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