अर्थशास्त्रियों की राय: राज्य मुफ्त सुविधाएं तभी दें, जब बजट में राजस्व बचत हो
मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक के.आर. शण्मुगम ने आईएएनएस को बताया, राजनीतिक दल चुनावी वादे के तौर पर मुफ्त सुविधाएं और सब्सिडी की घोषणा कर सकते हैं। लेकिन इस तरह के चुनावी वादे मुफ्त/सब्सिडी तभी लागू किए जाने चाहिए जब राज्य के बजट में राजस्व बचत हो।
चेन्नई | राजनीतिक दलों द्वारा घोषित मुफ्त सुविधाओं के वादों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय सुनवाई कर रहा है। इसको लेकर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगर बजट में राजस्व बचत (रिवेन्यू सरप्लस) है तो मुफ्त सुविधाएं लागू की जा सकती हैं।
आसान शब्दों में, घरेलू मोर्चे पर जो लागू होता है, वह सरकारों के लिए भी समान रूप से लागू होता है। अगर कोई बचत है तो खर्च करें। अर्थशास्त्रियों ने मुफ्त और सब्सिडी पर सवाल उठाए।
मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक के.आर. शण्मुगम ने आईएएनएस को बताया, राजनीतिक दल चुनावी वादे के तौर पर मुफ्त सुविधाएं और सब्सिडी की घोषणा कर सकते हैं। लेकिन इस तरह के चुनावी वादे मुफ्त/सब्सिडी तभी लागू किए जाने चाहिए जब राज्य के बजट में राजस्व बचत हो।
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उन्होंने कहा कि राज्य और केंद्र सरकार कल्याणकारी सरकारें हैं और कल्याणकारी योजनाओं को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है।
इन दिनों बहस यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणापत्र के हिस्से के रूप में मुफ्त सुविधाओं के वादे किए जाते हैं। उनके निभाने में राज्य पर कर्ज और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है।
इसका एक तरीका यह है कि राज्य को राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम)का पालन करना चाहिए और बजट में राजस्व बचत होना चाहिए।
शण्मुगम ने दोहराया, स्टेट बजट में राजस्व बचत होने पर चुनावी घोषणापत्रों में घोषित मुफ्त और सब्सिडी को लागू करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
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लेकिन जमीनी स्तर पर जो हो रहा है वह यह है कि राज्य सरकारें इन मुफ्त सुविधाओं को लागू करने के लिए उधार लेती हैं, जो बदले में उनके कर्ज के बोझ को बढ़ाती हैं।
भारतीय राज्यों को अपने कर्ज को नियंत्रित करने और अपनी वित्तीय स्थिति में सुधार करने के लिए अपने फिजूलखर्ची पर अंकुश लगाना चाहिए।
राज्य सरकारों की मुफ्त और कल्याणकारी योजनाओं को मुख्य रूप से शराब कर राजस्व से वित्त पोषित किया जाता है, जो परिवार के मुखिया को लूटने और उसके परिवार के सदस्यों को देने जैसा है।
अर्थशास्त्री गौरी रामचंद्रन ने आईएएनएस को बताया, मुफ्त सुविधाएं वास्तव में मुफ्त नहीं हैं, बल्कि अन्य करदाताओं पर बोझ हैं। भारत की अर्थव्यवस्था की रक्षा करना राज्य सरकार का कर्तव्य है।
रामचंद्रन ने कहा कि मुफ्त/सब्सिडी को बजट के खाके में शामिल किया जाना था।
उन्होंने कहा कि समाज के हाशिए के वर्गो को ऊपर लाने के लिए राजकोषीय घाटे, व्यापक आर्थिक स्थिरता को छोड़े बिना मुफ्त/सब्सिडी से गणना तरीके से निपटा जाना चाहिए।
शण्मुगम ने कहा, सब्सिडी दो तरह की होती है अच्छी और बुरी। अच्छे सब्सिडी लक्षित आबादी का उत्थान करती हैं, जबकि खराब सब्सिडी का क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
उनके अनुसार, सब्सिडी सरकार के हाथ में एक राजकोषीय साधन है।
शण्मुगम ने कहा कि यदि लक्षित समूह की पहचान कर उनके उत्थान के लिए सहायता प्रदान की जाती है तो यह एक अच्छी सब्सिडी है। अगर यह कीमत को विकृत करता है, उदाहरण के लिए मुफ्त बिजली तो यह खराब है।
बिजली एक ऐसी सुविधा है, जिसे मुफ्त में देने से इसके उपयोग में वृद्धि होगी, जो बदले में अन्य क्षेत्रों में कीमतों को विकृत करेगी।
शणमुगम ने कहा, इसी तरह, बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा भी लक्षित योग्य नहीं है, क्योंकि इसका वह महिलाएं भी फायदा उठाएंगी, जो टिकट खरीदने में सक्षम है।
रामचंद्रन के अनुसार, कल्याणकारी योजनाओं के मामले में व्यय और समग्र लाभकारी प्रभाव की पहचान करनी जरूरी है।
उन्होंने कहा कि मुफ्त सुविधाएं, जो संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों जैसे शून्य भुखमरी, अच्छे स्वास्थ्य और लैंगिक समानता को प्राप्त करने में भूमिका निभाती हैं।
यह मानते हुए कि राज्य के आय के वैकल्पिक स्रोत सीमित हैं, शण्मुगम ने कहा, शायद केंद्र सरकार राज्यों को अपने नागरिकों पर आय कर लगाने की अनुमति दे सकती है। ऐसे राज्य हैं जो शिकायत कर रहे हैं कि उनके नागरिक केंद्र सरकार को भारी मात्रा में करों का योगदान करते हैं, लेकिन केंद्र से उनको केवल एक छोटा हिस्सा प्राप्त होता है।
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