जालोर : विश्व पर्यावरण दिवस के दिन ही काटे जा रहे हरे वृक्ष

आज विश्व पर्यावरण दिवस हैं। और पर्यावरण को साफ सुथरा रखने और प्राणवायु का प्राकृतिक कारखाना माने जाने वाले पेड़ो पर आज ही के दिन आरी चलाना कहीं न कहीं विश्व पर्यावरण दिवस का मख़ौल उड़ाने जैसा हैं।

  • हालांकि इन वृक्षों को काटने के लिए ली गई हैं सक्षम स्वीकृति
  • पर जहां एक तरफ वृक्ष लगाकर पर्यावरण बचाने का दिया जा रहा संदेश
  • वहीं दूसरी तरफ इन विशाल पेड़ों का काटना पर्यावरण दिवस का उड़ा रहा मख़ौल
  • जालोर जिले के सांचोर क्षेत्र से निकलने वाली भारतमाला प्रोजेक्ट का मामला

जालोर।

आज विश्व पर्यावरण दिवस हैं। और पर्यावरण को साफ सुथरा रखने और प्राणवायु का प्राकृतिक कारखाना माने जाने वाले पेड़ो पर आज ही के दिन आरी चलाना कहीं न कहीं विश्व पर्यावरण दिवस का मख़ौल उड़ाने जैसा हैं। आज जालोर जिले की सांचौर तहसील क्षेत्र के देवड़ा गांव के पास से निकलने वाली भारतमाला सड़क परियोजना के लिए कई पेड़ो की बलि दी जा रही हैं। हालांकि इन पेड़ों को काटने के लिए सक्षम स्तर की स्वीकृति ले रखी हैं। पर आज ही जब एक तरफ नए नए पेड़ लगाकर पूरा विश्व पर्यावरण को बचाने के लिए संदेश दे रहा हैं, वही दूसरी तरफ विशाल हरे पेड़ो को काटती ये तस्वीर अंतर्मन को झकझोर रही हैं।

देश के प्रधानमंत्री से लेकर गांव की स्कूल के बच्चे तक आज एक एक पेड़ लगाकर इस बात की शपथ ले रहे हैं कि वो अपने जीवन में कभी किसी पेड़ को नही काटेंगे, वही दूसरी तरफ इन पेड़ों पर आरी चलाना मन को तकलीफ जरूर देती हैं। ये सांचोर भी उसी मारवाड़ का हिस्सा हैं जहां आज से करीब 300 वर्ष पहले खेजड़ली गांव की रहने वाली अमृतादेवी बिश्नोई ने अपनी तीन मासूम बेटियों सहित 363 लोगो के साथ खेजड़ी को बचाने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया था। पर आज जब उसी मारवाड़ के एक अन्य गांव में उसी खेजड़ी को कटते देखना यहां के निवासियों के लिए कितना पीड़ादायक होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता हैं।

सांचोर क्षेत्र भी बिश्नोई बाहुल्य क्षेत्र हैं और बिश्नोई समाज में खेजड़ी को पवित्र पेड़ माना जाता हैं। बिश्नोई समाज में हरे वृक्ष की रक्षा करना और जीवदया का मूलमंत्र जन्म से ही सिखाया जाता हैं। लेकिन आज जब सरकारी आदेश से इस क्षेत्र में खेजड़ी पर जब आरी चलती हैं तो यहां के निवासियों के सीने में दर्द की सूल जरूर उठती होगी।

अमृता देवी बिश्नोई ने की थी चिपको आंदोलन की शुरुआत 
तत्कालीन मारवाड़ रियासत के खेजड़ली गांव में 12 सितम्बर 1730 के दिन अमृता देवी बिश्नोई ने अपनी तीन मासूम बेटियों सहित 363 लोगों के साथ गांव की सरहद में खड़े 363 खेजड़ी के वृक्षों को बचाने के लिए खेजड़ी के पेड़ों से चिपक गए थे। मारवाड़ रियासत के तत्कालीन महाराजा अभय सिंह ने अपने नए भवन को बनाने के लिए खेजड़ली गांव में अपने कर्मचारियों को भेज कर इन खेजड़ी के पेड़ों को काटने का आदेश दिया था। लेकिन इस वीर महिला ने अपने बचपन में सीखे बिश्नोई धर्म के मूल मंत्र को चरितार्थ करते हुए राजा की फ़ौज के सामने खुद का बलिदान देने के लिए खेजड़ी के वृक्ष से चिपक गई। जिसको देखकर उनकी तीन मासूम बेटियों ने भी खेजड़ी के अलग अलग वृक्षों से लिपट कर इन पेड़ों को बचाने की जद्दोजहद की। लेकिन राजा के सिपाहियों ने पेड़ो के साथ साथ इन्हे भी काटने का आदेश दे दिया। जिसे देखकर गांव के 363 लोगो ने भी एक एक वृक्ष से चिपक कर अमृता देवी का अनुसरण किया। जिस पर राजा के सिपाहियों ने इस सभी लोगो को एक एक कर इन पेड़ो के साथ काट दिया। जो इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। आजादी के बाद जब देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और राजस्थान का निर्माण हुआ तो राजस्थान सरकार ने अमृता देवी के जीवन चरित्र से प्रभावित होकर पर्यावरण के क्षेत्र में सर्वोत्तम कार्य करने वालों को पुरस्कार देने का निर्णय लिया जिसे आज अमृता देवी पुरस्कार के नाम से जाना जाता है।