Sirohi @ आत्महत्या के बाद आंदोलन: शिवगंज में शव की सात दिन तक दुर्गति के अलावा कुछ हासिल नहीं कर पाए प्रदर्शनकारी, एसपी के आश्वासन के बाद आंदोलन समाप्त

सात दिन तक पथराई आंखों से अपने पति के शव का इंतजार करती रही वामांगिनी, धरने का नेतृत्व करने वाले विद्वान अधिवक्ता, जनप्रतिनिधियों को क्या नहीं थी कानून के सर्वाेपरी होने की जानकारी, समाज को दें जवाब!

शिवगंज। 
शहर की एक फाईंनेंस कंपनी में कार्य करने वाले काना कोलर गांव के एक युवा की ओर से सात दिन पूर्व अपने घर पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर लिए जाने के बाद से पुलिस थाने के बाहर चल रहा एक रीढ़ ​विहीन आंदोलन आखिरकार उसी समझौते पर संपन हो गया जो धरने के पहले दिन स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने देवासी समाज को दिया था। हां फर्क सिर्फ इतना था कि पहले स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने आश्वासन दिया था अब सात दिन बाद पुलिस अधीक्षक ने भी यहीं आश्वासन दिया।
 सवाल यह उठाता है कि फिर इतने दिनों में क्या हासिल कर लिया ? जिसके लिए उस शरीर की दुर्गति करवाई गई। इसकी आत्मा ने देह को सात दिन पहले ही त्याग दिया था। जहां परिवार जनों को मृत्यु के बाद होने वाले सामाजिक संस्कार पूर्ण करने थे उनको आखिरकार धरने पर क्यों बैठाए रखा गया। 
मृतक के शव के साथ आंदोलन से उठे कई सवाल
धरने के नेतृत्व करने वालों को घर पर अपने पति की मौत के बाद शव के घर आने का सात दिन से अपनी पथराई आंखों से इंतजार कर रही उस वामांगिनी की मनोदशा का भी ख्याल नहीं रहा। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि जो लोग इस धरने का नेतृत्व कर रहे थे, उनमें कानून की पैरवी करने वाले अधिवक्ता भी थे, जनप्रतिनिधि भी थे जिन्होंने अपनी जिंदगी के कई साल राजनीति और समाजसेवा के क्षेत्र में गुजार दिए। क्या उनको यह जानकारी नहीं थी कि व्यक्ति, समाज और सरकार से भी उपर कानून होता है और जो कानून के दायरे में है वहीं कार्य नैतिक और न्याय संगत है। समाज को उनसे यह सवाल जरुर पुछना चाहिए।


सुसाइड नोट और लेन देन के मामले पर जांच
अनाराम देवासी आत्महत्या प्रकरण के पहले दिन से ही इस घटना को लेकर प्रत्येक गतिविधि पर कई जानकारों की नजर थी। जिस दिन घटना की सूचना पुलिस को मिली और मृतक के परिजनों की ओर से पुलिस को आत्महत्या से पहले लिखा गया कथित सुसाइड नोट थमाया गया (जिस समय पुलिस मौके पर पहुंची उस समय तक शव को नीचे उतार दिया गया था तथा सुसाइट नोट पुलिस ने मृतक के पास से बरामद नहीं किया बल्कि परिजनों की ओर से पुलिस को दिया गया) उस सुसाइट नोट में वर्णित आरोपों से प्रथम दृष्टया यह स्पष्ट हो गया था कि यह मामला लेनदेन से संबंधित है जो कि जांच का विषय है। अस्पताल परिसर में जमा हुए देवासी समाज के लोगों एवं मृतक के परिजनों को भी पुलिस ने यहीं आश्वासन दिया कि मामले की पूरी तरह से निष्पक्ष जांच की जाकर जो भी इसमें दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। उस समय तक तो पिक्चर साफ हो गई थी, लेकिन कुछ ही देर बाद जब समाज के लोगों की इसमें एन्ट्री हो गई और पूरा सीन ही बदल गया। 
अस्पताल परिसर से शुरू हुआ धरना पुलिस थाने तक पहुंचा
बात आर्थिक सहायता से शुरू होकर आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का मामला दर्ज करवाने तक पहुंच गई। पहले तो कंपनी के संचालक मृतक उनका कर्मचारी होने की वजह से परिजनों को यथासंभव आर्थिक सहायता देने को तैयार थे, लेकिन जैसे ही यह मांग बढ़ी, कंपनी संचालक ने भी अपने हाथ पीछे खींच लिए।  परिणाम स्वरूप काफी देर तक माथापच्ची के बाद आखिरकार परिजनों ने पुलिस थाने में कंपनी के संचालक जनक सोनी एवं प्रबंधक नारायण देवासी जो स्वयं देवासी समाज के ही व्यक्ति है तथा अनाराम के सहकर्मी के रूप में कार्य करते है के खिलाफ मामला दर्ज करवा दिया गया। बाद में समाज के लोग आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग करते हुए पोस्टमार्टम नहीं करवाने का कहते हुए अस्पताल परिसर में ही धरने पर बैठ गए। हालाकि इस दौरान पुलिस अधिकारियों ने देवासी समाज के प्रबुद्ध लोगों एवं परिजनों से इस बात को लेकर समझाईश की कि मामले की जांच के बाद ही कार्रवाई संभव हो सकती है। पुलिस की ओर से लोगों को समझाने की हर वह कोशिश की गई जो संभव थी, बावजूद इसके बात नहीं बनी। दो दिन तक अस्पताल में धरने पर बैठने के बाद जब अस्पताल की व्यवस्थाएं प्रभावित होने लगी तो उपखंड अधिकारी ने वहां धरने की इजाजत नहीं दी। जिस पर धरनार्थी पुलिस थाने के समीप आकर धरने पर बैठ गए।
इस अवधि के दौरान पुलिस पूरी तरह से धैर्य का परिचय देते हुए आंदोलनरत लोगों को मानवीयता का वास्ता देते हुए शव का पोस्टमार्टम करवा उसका अंतिम संस्कार करवाने का आग्रह करती रही। लेकिन आंदोलनकारी तो बस फायनेंस कंपनी के मालिक की गिरफ्तारी पर अड़े रहे। 
अंतिम संस्कार के बाद भी हो सकता था आंदोलन
हालांकि मृतक के परिजनों को न्याय दिलवाने के लिए यदि धरना देना ही आवश्यक था तो मानवीय दृष्टीकोण का भी ध्यान रखना चाहिए था। क्योंकि मृतक के परिजन जिसमें माता-पिता थे। किशोरावस्था की दहलीज को पार करने के बाद जिसे अपनी भार्या के रूप में स्वीकार किया वह पत्नी और दो अबोध बच्चें भी थे। वे घर पर शरीर त्याग चुके बेटे, पति के शव के घर आने का इंतजार करते हुए भूखें प्यासें बैठे रहे होंगे, उन तक शव को पहुंचा उसका अंतिम संस्कार करवा फिर आंदोलन की राह थाम सकते थे। मगर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों ने यह जानते हुए भी कि इसमें मामले में ज्यादा कुछ होना संभव नहीं है फिर भी शव को रखकर प्रदर्शन करना सर्वाधिक हितकर समझा और पूरे छह दिन गुजार दिए। इस दौरान अनाराम का शव बिना पोस्टमार्टम के डीपफ्रीज में ही पड़ा रहा। इस दौरान चिकित्सकों का भी यहीं कहना था कि अधिक दिन होने से शव के खराब होने की पूरी संभावना है बावजूद इसके किसी का ध्यान इस दिशा में नहीं गया। क्योंकि शव का अंतिम संस्कार करवाने से अधिक जरुरी पुलिस और प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करना था।  
आरोपितों की गिरफ्तारी की मांग
इस अवधि के दौरान आरोपितों की गिरफ्तारी की एक सूत्री मांग को लेकर काफी दांव पेंच भी लगाए गए। वार्ता के दौरान जब पुलिस अधिकारियों की ओर से समझाया गया तो यहां तक कहा गया कि सुसाइड नोट के आधार पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए आंदोलन खत्म कर देंगे। जो पुलिस के लिए कानूनी रूप से संभव नहीं था। हालांकि इस दौरान पुलिस ने भी अपनी जांच शुरू कर दी और कंपनी से आवश्यक दस्तावेज जुटाने शुरू कर दिए जिसमें कंपनी संचालकों ने पूरा सहयोग दिया। धरने के दौरान यह रणनीति भी बनाई गई कि गिरफ्तारी के लिए पुलिस व प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए विशाल रैली भी निकालकर प्रदर्शन किया जाए। जिसके चलते सैकड़ों की संख्या में युवाओं ने रैली निकाल जोरदार नारेबाजी भी की गई। सारे घटनाक्रम के दौरान जब कोई परिणाम आता नहीं देख परिजनों का धैर्य भी जवाब देने लग गया। आखिर धैर्य भी क्यों नहीं टूटे ? परिजनों की आंखों के सामने जिसका दिल धडक़ता था उसकी देह इतने दिनों से अस्पताल की मोर्चरी में रखी अंतिम संस्कार की बाट जोह रही थी।
उपखंड अधिकारियों को दिया ज्ञापन, कराया पोस्टमार्टम
बहरहाल, धरने प्रदर्शक के बीच शहर की शांति व्यवस्था में गतिरोध उत्पन होने तथा व्यापार प्रभावित होने की संभावना के चलते शहर के व्यापारिक संगठनों की ओर से उपखंड अधिकारी को ज्ञापन देने के बाद पुलिस ने भी शव का पोस्टमार्टम करवा अंतिम संस्कार करवाने का मानस बनाना शुरू कर दिया। इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया भी पुलिस की ओर से शुरू कर दी गई। पुलिस की इस अग्रिम कार्रवाई की भनक लगने पर आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने धरने को खत्म करने का सम्मान जनक हल निकालने के लिए जिला मुख्यालय पर बैठे जिला अधिकारियों से मिलने का निर्णय लिया। सिरोही मुख्यालय पर पुलिस अधीक्षक से मुलाकात करने के बाद उनकी ओर से मिले आश्वासन के बाद यकायक प्रतिनिधियों ने पुलिस थाने पहुंच पुलिस अधिकारियों को शव का पोस्टमार्टम करवाने के लिए अपना सहमति पत्र प्रदान कर दिया। नतीजतन घटना के सात दिन बाद अनाराम के शव का पोस्टमार्टम और उसके बाद अंतिम संस्कार संभव हो सका। अनाराम की मृत देह तो आज पंचतत्व में विलीन हो गई, मगर उसकी मौत के बाद उपजा आंदोलन यह सीख अवश्य दे गया कि नेतृत्व विहीन आंदोलन अपनी मंजिल कभी नहीं पा सकता। इसके लिए आंदोलन का नेतृत्व कर रहे उन लोगों को भी आत्ममंथन करना होगा कि जो कुछ भी हुआ वह क्या उचित था ?